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और जाने क्या हुआ उस दिन -आदित्य चौधरी

खिसकते निक्कर को 
थामने की उम्र थी मेरी
जब वो 
पड़ोस में रहने आई थी

और पहले ही दिन
हमने छुप-छुप कर 
ख़ूब आइसक्रीम खाई थी

वो पैसे चुराती 
और मैं ख़र्च करता
अब क्या कहूँ 
इसी तरह की आशनाई थी

मैं तो मुँह फाड़े
भागता था 
पीछे कटी पतंगों के
न जाने कब 
वो मेरे लिए
नई चर्ख़ी, पंतग और डोर 
ले आई थी

उस दिन भी 
अहसास नहीं हुआ मुझको
कि उसकी आँखों में 
कितनी गहराई थी

मैं तो सपने बुना करता था
नई साइकिल के
कि वो ऊन चुराकर 
मेरे लिए 
स्वेटर बुन लाई थी

कुछ इस तरहा
आहिस्ता-आहिस्ता 
वो मेरी ज़िन्दगी में आई थी

जिस दिन उसको 
'देखने' वाले आए
उस दिन वो मुझसे
न जाने क्या 
कहने आई थी

और जाने क्या हुआ 
उस दिन
कि उसकी 
मंद-मंद मुस्कान 
मुझे ज़िन्दगी भर 
याद आई थी

क्योंकि 
वो फिर नहीं आई थी
वो फिर नहीं आई थी...



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