पुराने ज़माने की बात है, एक गाँव से होकर एक व्यापारी सेठ की माल असबाब से लदी बैलगाड़ी गुज़र रही थी। रास्ते में बरसात के कारण गहरा गड्ढ़ा था जिसमें गाड़ी फंस गई। चार-चार आदमियों की काफ़ी कोशिश के बाद भी गाड़ी निकाली न जा सकी। पास ही एक दुकान के पट्टे पर छोटे पहलवान भी बैठा था और यह सब देख रहा था। दुकानदार ने सेठ जी से कहा-
"सेठ जी आप छोटे पहलवान से अगर कह दें तो आपकी गाड़ी पार निकल जाएगी।"
सेठ जी ने छोटे पहलवान से गाड़ी निकालने कहा। पहलवान ने चारों लोगों को हटा दिया और अकेले ही कंधे के सहारे से बड़े आसानी से गाड़ी को गड्ढ़े से निकाल दिया।
"भई ये तो कमाल हो गया... पहलवान तो बड़े ताक़तवर हैं।... आप करते क्या हैं पहलवान जी ?" सेठ जी ने पूछा
"अजी करते तो कुछ नहीं हैं... आजकल बिल्कुल ख़ाली हैं... बहुत भले और शरीफ़ आदमी हैं ... लाठी चलाने में तो इतने माहिर हैं कि बीस-बीस आदमी भी इनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते "
दुकानदार ने पहलवान की तरफ़ से जवाब दिया। पहलवान चुपचाप वापस वहीं जाकर बैठ गया जहाँ पहले बैठा था और चेहरे पर लापरवाही के भाव लाकर बातों को अनसुनी जैसी करने लगा।
अब तो सेठ जी की दिलचस्पी छोटे पहलवान में और बढ़ गई-
"मैं शहरों और गाँवो में अपने व्यापार के कारण घूमता रहता हूँ... अक्सर रात में भी सफ़र करना पड़ता है… अगर ये पहलवान सफ़र में मेरे साथ रहेगा तो चोर-डाकुओं का ख़तरा नहीं रहेगा" सेठ ने मन ही मन सोचा और पहलवान को अपने साथ चलने को राज़ी कर लिया।
छोटे पहलवान की तो मौज आ गई। अच्छा खाना-पीना मिलने लगा तो पहलवान की सेहत और अच्छी हो गई। सेठ भी बेखटके अपनी व्यापारिक यात्राएँ करने लगा। एक दिन शाम के झुटपुटे में सेठ की गाड़ी को कुछ लुटेरों ने घेर लिया और गाड़ी को लूट लिया। सेठ ने देखा कि इस पूरे हादसे में पहलवान कुछ नहीं बोला और एक तरफ़ जा कर बैठ गया। जब सेठ का सारा माल लूटकर और सेठ जी की अच्छी पिटाई करने के बाद वहाँ से चलने लगे तो सेठ ने लुटेरों को रोका और कहा-
"भाइयों ! तुमने मुझे लूट लिया और पिटाई भी की लेकिन मैं तुमको ये हीरे की अँगूठी देना चाहता हूँ जो मैंने छुपा के रखी हुई थी और तुम लोगों की निगाह में नहीं आई। लेकिन इसके बदले में, मैं तुमसे कुछ चाहता हूँ।"
"क्या ?" लुटेरों के मुखिया ने पूछा
"वो जो पहलवान बैठा है न पेड़ के नीचे उसमें हल्के से सिर्फ़ एक लाठी मार दो।"
लुटेरों के मुखिया ने जैसे ही छोटे पहलवान को मारने के लिए लाठी उठाई, पहलवान ने लाठी छीनकर जो दनादन लाठी चलाई तो सारे लुटेरे ढेर कर दिए। सेठ जी का सारा सामान वापस मिल गया।
अपने घर वापस लौटकर सेठ जी ने छोटे पहलवान से कहा-
"पहलवान ये लो अपने हिसाब के पैसे... अब तुम अपने घर जाओ... मैं तुम्हें नहीं रख सकता... कारण ये है कि
पहले तो मैं पिटूँ... फिर लुटूँ... फिर एक हीरे की अँगूठी दूँ...फिर तुमको पिटवाऊँ... तब कहीं जाकर तुमको होश आएगा और तुम मुझे बचाओगे... तो भैया तुम अपने घर और हम अपने घर भले...।
चलिए वापस चलते हैं-
तीन तरह के व्यक्ति होते हैं। पहले वे जो ज़रूरत को देखते हुए बिना कहे ही काम करते हैं, दूसरे वे जो कहने से काम कर देते हैं और तीसरे वे जो कहने से भी काम नहीं करते बल्कि उनको किसी परिस्थिति में फँसाकर ही काम 'कराया' जा सकता है। ये दुनिया जितनी भी तरक़्क़ी कर रही है वह पहली श्रेणी वाले लोगों के कारण कर रही है और दुनिया में व्यवस्था संभालने का ज़िम्मा उनका है जो दूसरी श्रेणी के लोग हैं, अब रह जाते हैं तीसरी श्रेणी के लोग... तो आप ख़ुद ही सोच सकते हैं कि वे किस श्रेणी में आते हैं। ये लोग होते हैं चौकोर फ़ुटबॉल। जितना लात मारोगे उतना ही सरकेगी; गोल फ़ुटबॉल की तरह नहीं कि एक किक लगाते ही ये जा-वो जा...
सार्वजनिक क्षेत्र में किस तरह से काम होता है यह तो आप जानते ही हैं। डाकखाना, बिजलीघर, सरकारी अस्पताल आदि में चले जायें तो लगता है जैसे दुनिया रुक सी गई है। निजी क्षेत्र में भी जिन्होंने अनुभव किए हैं वे काफ़ी दिलचस्प हैं। किसी भी प्रतिष्ठान में 10 में से 2 व्यक्ति ही कर्मठ होते हैं। ये दो व्यक्ति वे होते हैं जिनके बल पर कम्पनियाँ प्रगति करती हैं, विकास करती हैं।
काम के बारे में कुछ मशहूर हस्तियों के उद्धरण-
- ऐसा काम चुनो जिसे तुम प्यार करते हो, इसके बाद तुम्हें ज़िंदगी भर 'काम' करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी- कंफ़्यूशस (क्योंकि यह काम तुम्हारा प्रेम होगा और प्रेम कोई 'कार्य' नहीं होता)
- किसी ऐसे आदमी को नौकरी मत दो जो अपना काम पैसे के लिए करता है, बल्कि उसे नौकरी दो जो अपने काम से मुहब्बत करता है- हेनरी डेविड थोरो
- साथ जुड़ना एक शुरूआत है; साथ रहना प्रगति है और साथ काम करना ही सफलता है- हेनरी फ़ोर्ड
जब एक बुद्धिमान और होनहार व्यक्ति किसी प्रतिष्ठान में नौकरी करता है तो उसका काम करने का तरीक़ा सामान्य व्यक्तियों से अलग होता है। वह जानता है कि यदि उसे विकास करना है तो कम्पनी की प्रगति भी जरूरी है और वह बिना भावुकता के सोची समझी रणनीति के साथ अपने काम को ज़िम्मेदारी से करता है। सीधी सी बात है अगर हमें महत्त्वपूर्ण बनना है तो हमें उस प्रतिष्ठान की अनिवार्य ज़रूरत के रूप में खुद को साबित करना होगा। यहाँ पर यह भी ध्यान देने योग्य है कि कोई भी प्रतिष्ठान किसी कर्मचारी को भावुकता के धरातल पर नहीं रखता इसलिए कर्मचारियों का भी प्रतिष्ठान के प्रति भावुक प्रेम निरर्थक ही है।
150 करोड़ की आबादी को छूने को तैयार हमारे देश में कई पार्टियों की सरकारें बनीं, कभी स्पष्ट बहुमत से तो कभी मिली जुली लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र को अच्छी तरह संभालने में कभी भी, कोई भी सरकार सफल नहीं रही। क्या ये लोकतंत्र की मजबूरी है ? क्या प्रजातांत्रिक ढांचे में चल रहे देश इसी प्रकार की समस्याओं से जूझते रहते हैं ? क्या उत्तर है इन बातों का ? असल में सरकारी नौकरियों की दुनिया ही अलग है जहाँ कर्मठता और अकर्मण्यता में कोई उल्लेखनीय भेद नहीं है। न जाने क्यों सार्वजनिक क्षेत्र में कर्मचारियों के निष्क्रिय और अकर्मण्य होने पर भी किसी प्रकार के गम्भीर दण्ड का प्रावधान नहीं है। इसी कारण सार्वजनिक क्षेत्र निजी क्षेत्र से पिछड़ते जाते हैं।
इस सप्ताह इतना ही... अगले सप्ताह कुछ और...
-आदित्य चौधरी
संस्थापक एवं प्रधान सम्पादक