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1857 -आदित्य चौधरी

इसी मैदान में उस शख़्स को फाँसी लगी होगी
तमाशा देखने को भीड़ भी काफ़ी लगी होगी

          जिन्हें आज़ाद करने की ग़रज़ से जान पर खेला
          उन्हीं को चंद रोज़ों में ख़बर बासी लगी होगी

बड़े सरकार आए हैं, यहाँ पौधा लगाएँगे
हटाने धूल को मुद्दत में अब झाड़ू लगी होगी

          शहर में लोग ज़्यादा हैं जगह रहने की भी कम है
          इसी को सोचकर मैदान की बोली लगी होगी

यहाँ तो ज़ात और मज़हब का अब बाज़ार लगता है
उसे अपनी शहादत ही बहुत फीकी लगी होगी


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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