कितना बेदर्द और तन्हा है मुहब्बत का सफ़र जिससे पूछो वही एक दर्द लिए बैठा है एक इज़हार-ए-मुहब्बत ही न कर पाने को किसी कोने में वो अफ़सोस किए बैठा है मेरा महबूब, किसी रोज़ पलट कर आए दिल को मासूम दिलासा सा दिए बैठा है उसको आती हो मेरी याद कभी फ़ुर्सत में ऐसी हसरत से दिल के घाव सिए बैठा है कैसा बेज़ार है, तन्हा है, बेख़बर भी है इसकी पहचान बनाने को पिए बैठा है