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दिनांक- 30 मई, 2016

मुझसे मेरे एक मित्र ने पूछा कि अगर तुम्हें एक हज़ार करोड़ रुपए दे दिए जाएँ तो क्या करोगे?
मैंने कुछ देर सोचकर कहा-
“एक तो मुझे ताज़ा मट्ठा पसंद है तो एक-दो भैंस-गाय लूँगा। कढ़ी-चावल पसंद हैं तो उसके लिए भी मट्ठा ही चाहिए। मिस्सी रोटी दही भुने ज़ीरे के साथ पसंद हैं तो उसके लिए भी भैंस-गाय ही चाहिए… मतलब कि कुल मिलाकर गाय-भैंस तो चाहिए ही। इनके चारे के लिए दो-चार एकड़ खेत और साथ ही सब्ज़ी-अनाज भी उसी में उगा लेंगे। हाँ ट्यूब वैल हो और खेत नदी के पास हो। नदी अगर गंगा हो तो बस मौज ही आ गईं। खेत में ही मक़ान हो। मक़ान वही पुराना आंगन वाला जिसमें सुबह को धूप आए याने पूरब की ओर दरवाज़े वाला… लेकिन मक़ान ज़्यादा बड़ा न हो। टीवी, अख़बार, कंप्यूटर, स्मार्ट फ़ोन से दूर-दूर का कोई वास्ता न हो। खेत में ही एक बड़ी सी पानी की टंकी हो तैरने के लिए (चलिए छोटा सा स्विमिंग पूल कह लीजिए)। कुल मिला कर एक आश्रम-नुमा कुछ बनाया जाए।

मिट्टी के चूल्हे की, पानी के हाथ की रोटी मिल सकें अाहाहा क्या बात है। वो भी बबूल की लकड़ी से सिकी हुई। कभी-कभी रात को बनी मिस्सी रोटी और बासी कढ़ी का आनंद आए। घूमने फिरने के लिए एक सवारी हो तो बढ़िया रहेगा... जीप नुमा कुछ…। जब मन किया तो आस-पास घूम-घाम लिए
हाँ एक मोबाइल फ़ोन तो हो जिससे बच्चों से बात हो सकें या कोई मित्र कभी याद करे तो उससे। कुछ पैसा बैंक में जमा हो जिससे महीने का ख़र्च चलता रहे। अास-पास के बच्चों को इकट्ठा करके पढ़ाएँ। ख़ासकर जो बच्चे स्कूल नहीं जा सकते उन्हें…”

ये सब सुनते-सुनते मित्र बीच में बोले “ये तो बहुत कम में हो जाएगा बात तो हज़ार करोड़ की हो रही है?”
मैंने कहा “बाक़ी सब पैसा तो बाँटने में चला जाएगा, मेरी ज़िन्दगी भर की आदत बदल थोड़े ही जाएगी।”
“फिर तो तुमको हज़ार करोड़ मिलने का कोई मतलब ही नहीं है। तुम्हारे तो इरादों में ही कंगाली है। तुम ऐसे ही ठीक हो…”
अब मैं क्या कहता…

दिनांक- 24 अप्रैल, 2016

कुछ समय पहले मुझसे एक प्रश्न किया गया था। जोकि फ़ेसबुक मित्र ने ही किया था। उसका जवाब आज दे रहा हूँ-
प्रश्न:-
Sir आपने लगभग 1 वर्ष पहले ये वाक्य उत्पन्न किये थे..'जाट जाति नहीं नस्ल है'...Sir हम इन विचारों के पीछे के आधार जानना चाहते हैं...हम जानना चाहते हैं कि ये विचार आपने किस आधार पर उत्पन्न किये थे....आपके वाक्य हमारी सोच को परिपक्वता प्रदान करेंगे।

उत्तर:-
सबसे पहले तो मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि मैं जाति-नस्ल या धर्म के कारण किए गए भेद-भाव से पूर्णत: असहमत हूँ। यहाँ मैं प्रश्न के उत्तर के लिए ही जाति आदि का उल्लेख कर रहा हूँ।

जाति की पहचान से सामान्य-कर्म की जानकारी होती थी। जो अब सामान्यत: नहीं होती। यदि पारंपरिक आधार से कहें तो जो आपका रोज़गार या व्यवसाय है वही आपकी जाति है। नस्ल की पहचान आपके; स्वभाव, देहयष्टि, चेहरे और शरीर के हावभाव आदि से होती है। नस्ल के लिए गोत्र शब्द का भी इस्तेमाल कहीं-कहीं हो सकता है।

विश्व में लगभग सात प्रकार की मुख्य नस्ल हैं। जिनके अनुसार हाथों, पैरों, उँगलियों, आँखों, मुख, माथा आदि की बनावट श्रेणीगत की जाती है। वैज्ञानिक कहते हैं कि हम सभी सात मांओं की संतान हैं। डी.एन.ए की बनावट का विश्लेषण करते हुए वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुँचे हैं।
रुचिकर बात तो यह है कि भारतीय संस्कृति में मूल देवियों के रूप में ‘सप्त मातृका’ का ज़िक्र बार-बार आया है। इसी प्रकार पश्चिमी संस्कृति में भी ऍडम की पत्नी ईव की सात बेटियाँ बताई गई हैं। सात की संख्या का दूसरे विभागों में भी विशेष महत्व है। जैसे सात रंग, सात सुर, सात समन्दर और हिन्दू शादी में सात ही फेरे जैसे बहुत से उदाहरण विज्ञान और धर्म में दिए जा सकते हैं।
ख़ैर...
नस्ल के लिए ज़िम्मेदार है; डी.एन.ए., पानी, खान-पान, ब्लड ग्रुप, मौसम और निवास स्थान। जबकि जाति के लिए रोज़गार और व्यवसाय ही ज़िम्मेदार हैं। एक जाति के भीतर कई नस्लें हो सकती हैं और एक नस्ल के भीतर कई जातियाँ। कालान्तर में नस्ल बदल भी जाती है। जिसका कारण हज़ारों वर्षों तक उस नस्ल का किसी ऐसी जाति के कार्य को अपना लेना होता है जो कि उस नस्ल के स्वभाव और शारीरिक बनावट से पूरी तरह भिन्न होता है।

ब्राह्मणों के बारे में चर्चा करें तो; नंबूदरीपाद, चित्तपावन, सारस्वत, गौतम, सनाड्य आदि की बनावट में पर्याप्त भिन्नता है। इनके स्वभाव में भी भिन्नता है। इसका कारण नस्ल या गोत्र है न कि जाति क्योंकि जाति तो सबकी एक ही है।
जहाँ तक मेरा अन्दाज़ा है मेरा आशय स्पष्ट है।

दिनांक- 23 अप्रैल, 2016

आज विश्व पुस्तक दिवस है। मुझे बचपन से ही पढ़ने का शौक़ रहा है। शुरुआत हुई थी चंदामामा, नंदन और पराग से... फिर धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान और सारिका पढ़े। कॉमिक्स में ली फ़ॉक की फ़ैन्टम, मॅन्ड्रेक और फ़्लॅश गॉर्डन से शुरुआत हुई और बाद में मेरे पसंदीदा बने ऍस्टेरिक्स-ऑबेलिक्स, जिन्हें फ़्रांसीसी गोसिनी और उडेरज़ो तैयार करते थे। ऍस्टेरिक्स कॉमिक साल में एक बार ही आती थी और बार-बार पढ़ी जाती थी।
बचपन में फ़ॅन्टम की कॉमिक हिन्दी में वेताल नाम से आती थी। डायना, गुर्रन, वान्डार बौने और वेताल का घोड़ा तूफ़ान, कुत्ता शेरा (ओह कुत्ता नहीं भेड़िया हाहाहा) हमारे जाने पहचाने चरित्र बन गए थे। मॅन्ड्रेक, लोथार, होजो, नारडा, थॅरोन, आदि चरित्र हमारी चर्चा का विषय रहते थे। वेताल का घर डेंकाली में था जो हमें वास्तविक लगता था। वेताल के मित्र राष्ट्रपति लुआगा, राजा जूनकर आदि चरित्र बड़े प्रभावशाली और जीवंत थे।

अब पुस्तकों के पढ़ने की बारी आई तो ज़ाहिर था कि मुंशी प्रेमचंद का गोदान ही पढ़ा जाना था। इसके बाद तो किताबों की लाइन लग गई। इस श्रृंखला में तमाम रूसी, फ्रांसीसी उपन्यास पढ़ डाले। जिसमें तोल्सतोय का 'पुनरुत्थान' और 'आन्ना कारिनिना' से लेकर गोर्की का 'मां', तुर्गनेव का 'पिता और पुत्र', कामू का 'ला पेस्त' (प्लेग), बालज़ाक का 'ओल्ड गोरियो', चेख़ोव की कहानियां आदि सैकड़ों किताबें पढ़ी गईं। श्रीलाल शुक्ल का 'राग दरबारी' और रेणु का 'परती परिकथा' से लेकर बाबर का 'बाबरनामा' आदि एक लम्बी श्रृंखला बनती चली गई। इतिहास, दर्शन और धर्म मेरे प्रिय विषय बन गए। वेद, उपनिषद, पुराण, रामायण, महाभारत आदि सब पढ़े।

मेरे लिए जैसे किताब ही जीवन था। सबसे बड़ा मनोरंजन, सबसे बड़ा व्यसन और सबसे बड़ा जुनून, किताब पढ़ना ही हो गया। मैं अपने से बड़ों से अक्सर किताबों के नाम पूछता और फिर दिल्ली में दरियागंज से ख़रीद कर लाता रहा। धीरे-धीर मेरा पुस्तकालय तैयार हो गया जो आज भारतकोश के काम आ रहा है।

किताबों के छपने का सिलसिला व्यवस्थित रुप से कैसे शुरू हुआ इसके बारे में मेरा ही एक पुराना लेख देखें-

1455 में इस दिन गुटिनबर्ग की पहली किताब छपकर दुनिया के सामने आयी थी, जो सचमुच ही इधर उधर जा सकती थी। लोग उसे देख सकते थे, पढ़ सकते थे और उसके पन्ने पलट सकते थे। इस किताब को 'गुटिनबर्ग बाइबिल' कहा गया। सब जानते हैं गुटिनबर्ग ने 'छपाई का आविष्कार' किया था। ऐसा नहीं है कि छ्पाई पहले नहीं होती थी, होती थी लेकिन किताब के रूप में शुरुआत सबसे पहले गुटिनबर्ग ने की और गुटिनबर्ग का नाम इस 'सहस्त्राब्दी के महानतम लोगों की सूची में पहला' है। इस तरह की कोई सर्वमान्य सूची तो कभी नहीं बनी लेकिन फिर भी प्रतिशत के हिसाब से अधिकतम लोग इसी सूची को मानते हैं। इस सूची में गुटिनबर्ग को 'मैन ऑफ़ द मिलेनियम' या 'सहस्त्राब्दी पुरुष' माना गया है। हम सब बहुत आभारी हैं गुटिनबर्ग के कि उसने यह विलक्षण खोज की... 'छापाख़ाना'। दु:ख की बात ये है कि गुटिनबर्ग का जीवन अभावों में गुज़रा उसके सहयोगी ने ही पूरा पैसा कमाया।

पहली प्रिंटिंग प्रेस शुरू हुई और गुटिनबर्ग के कारण दुनिया के सामने किताबें आ पाईं। किताबें आने से पहले लेखन का कुछ ना कुछ काम चलता रहता था, जो हाथों से लिखा जाता था, कभी भुर्जपत्रों पर लिखा गया, तो कभी पत्थर पर महीन छैनी-हथौड़े से उकेरा गया। दुनिया में लेखन सम्बंधी अनेक प्रयोग होते रहे। 'बोली' को लिखने के लिए लिपि और वर्तनी की आवश्यकता हुई और इस तरह 'भाषा' बन गई। भाषा और लिपि अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरह की बनीं। भारत में भी व्याकरण और लिपि का कार्य चल रहा था जो सम्भवत: 500 ईसा पूर्व में पाणिनी द्वारा किया गया माना जाता है। यह समय गौतम बुद्ध के आसपास का ही रहा होगा और सिकंदर के पंजाब पर हमले से पहले का।

इतिहासकारों के साथ-साथ हम भी यह मानते हैं कि विश्व के एक हिस्से, देश, कुल, झुंड, या क़बीले में क्या हो रहा था, वह सही रूप से जानने के लिए उस समय पृथ्वी के दूसरे हिस्सों में क्या घट रहा था? यह जानना बहुत ज़रूरी है। पं. जवाहरलाल नेहरू ने लिखा भी है कि अगर हम किसी एक देश का इतिहास जानना चाहें तो यह जानना बहुत ज़रूरी है कि उस कालक्रम में दूसरे देशों में क्या घट रहा था, अगर हम यह नहीं जानेंगे तो अपने देश का या जिस देश का इतिहास हम जानना चाहते हैं, सही रूप से नहीं जान पायेंगे। भगवतशरण उपाध्याय जी और दामोदर धर्मानंद कोसंबी जी के दृष्टिकोण से भी विश्व की सभी संस्कृतियाँ प्रारम्भ से ही एक दूसरे से बहुत गहरे में मिली-जुली हैं और कोई एक अलग प्रकार का, एक अलग क्षेत्र में, कोई विकास हो पाना सम्भव नहीं है।

'इजिप्ट' यानी मिस्र में बिल्कुल ही दूसरे तरीक़े का कार्य चल रहा था। मिस्री फ़राउन (राजा), मंत्री, धर्माधिकारी या प्रमुख वैद्य के पास एक व्यक्ति बैठा रहता था और वह मुख्य बातों को बड़े सलीक़े से सहेजता था। मिस्र में लेखन 'पेपिरस' पर होने लगा था। पेपिरस पौधे से बनाया गया एक प्रकार का काग़ज़ होता था जो मिस्र के दलदली इलाक़ों में पाया जाता था। यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि संस्कृत में काग़ज़ के लिए कोई शब्द नहीं है, हाँ पालि में अवश्य 'कागद' शब्द मिलता है। कालांतर में अंग्रेज़ी में प्रयुक्त होने वाला शब्द 'पेपर' पेपिरस या यूनानी शब्द 'पिप्युरस' से ही बना। मिस्र की भाषा को 'हायरोग्लिफ़िक' कहा गया है जिसका अर्थ 'पवित्र' (हायरो) लेखन (ग्लिफ़िक) है।

इसमें भी एक अजीब रोचक संयोग है कि जिस समय मिस्र में पिरामिड जैसी आश्चर्यजनक इमारत बनी, वहाँ लिपि की वर्णमाला अति दरिद्र थी। 3 हज़ार वर्षों में 24 अक्षरों की वर्णमाला में केवल 'व्यंजन' ही थे 'स्वर' एक भी नहीं। बिना स्वरों के केवल व्यंजन लिख कर ही लोगों के सम्बंध में लिखा जाता था। उसे वो कैसे बाद में पढ़ते थे और किस तरीक़े से उसका उच्चारण होता था, यह बात रहस्य ही बनी रही। सीधे संक्षिप्त रूप में कहें तो 'वर्तनी' लापता थी और सरल करें तो 'मात्राएँ' नहीं थीं। स्वर न होने के कारण शब्द को किस तरीक़े से बोला जाएगा यह जटिल और अस्पष्ट था। स्वरों के लिए अलग से प्रावधान थे, जो बेहद अवैज्ञानिक थे, जबकि भारत में पाणिनी रचित 'अष्टाध्यायी' का व्याकरण अपना पूर्ण परिष्कृत रूप ले चुका था। वर्तनी की इस कमी के चलते मिस्री लिपि को पढ़ना ठीक उसी तरह मुश्किल ही नहीं नामुमकिन था जैसे कि अमिताभ बच्चन की 'डॉन' फ़िल्म में 'डॉन' को पकड़ना लेकिन बाद में ये लिपि पढ़ ली गई। 'रॉसेटा अभिलेख' और फ़्रांसीसी विद्वान 'शाँपोल्यों' के कारण यह कार्य सफल हो गया।

मिस्र में राजवंशों की शुरुआत आज से 5 हज़ार वर्ष पहले ही हो गयी थी। मशहूर फ़राउन रॅमसी ( ये वही रॅमसी या रामासेस है जो मूसा के समय में था) का नाम पढ़ने में भी यही कठिनाई सामने आयी। कॉप्टिक भाषा (मिस्री ईसाइयों की भाषा) में इसका अर्थ है- रे या रा (सूर्य) का म-स (बेटा) अर्थात सूर्य का पुत्र। सोचने वाली बात ये है कि भगवान 'राम' का नाम भी इसी प्रकार का है और वे भी सूर्य वंशी ही हैं। अगर ये महज़ एक इत्तफ़ाक़ है तो बेहद दिलचस्प इत्तफ़ाक़ है। नाम कोई भी रहा हो रेमसी, इमहोतेप या टॉलेमी; स्वरों के बिना उन्हें सही पढ़ना बहुत कठिन था। मशहूर रानी क्लिओपात्रा के नाम में भी दिक़्क़त आयी उसे 'क ल प त र' ही पढ़ा जाता रहा जब तक कि स्वरों की गुत्थी नहीं सुलझी। 'क्लिओपात्रा' कोई नाम नहीं बल्कि रानी की उपाधि थी जिस क्लिओपात्रा को हम-आप जानते हैं वह सातवीं क्लिओपात्रा थी। उस समय मिस्र के राजाओं की उपाधि 'टॉलेमी' हुआ करती थी। उस समय भारत में भी उपाधियाँ चल रही थीं जिन्हें व्यक्ति समझ लिया जाता है जैसे व्यास, नारद, वशिष्ठ आदि।

दिनांक- 22 मार्च, 2016
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बहुत कम लोग जानते हैं कि अपने जीवन की वास्तविक स्थिति और अपनी क्षमताओं का वास्तविक ज्ञान होना एक प्रतिभा है।
यह सभी व्यक्तियों में नहीं होती।
अधिकतर व्यक्ति काल्पनिक दुनिया में जीते हैं।
इस सब में वे एक नक़ली दुनिया भी बना लेते हैं।
ऐसे लोग स्वभाव से स्वार्थी भी हो सकते हैं और स्वयं को श्रेष्ठ समझते हैं तो दूसरों को साधारण।
अपनी बुद्धि, क्षमता और प्रतिभा के संबंध में अधिकतर लोग भ्रम में जीते हैं।
अपनी बुद्धि के संबंध में सही जानकारी होना एक बहुत ही कठिन बात है।
यह योग्यता अर्जित की जा सकती है या नहीं, कहना कठिन है।
सबसे अधिक आश्चर्य की बात यह है कि ऐसे व्यक्ति अति बुद्धिमान भी हो सकते हैं लेकिन ‘वास्तविकता के ज्ञान’ के अभाव में अपने जीवन को सामान्य मनुष्य की तरह नहीं जी पाते। अपने द्वारा की गई भूलों के प्रति वे न तो सचेत रहते हैं और न ही उनके प्रायश्चित के संबंध में तत्पर। दूसरों की सफलता भी उन्हें बहुत साधारण लगती है। वे सोचते हैं कि यदि उन्होंने भी प्रयास किया होता तो वे भी सफल हो सकते थे। ऐसे लोग स्वयं को विशेष और विशिष्ट भी माने रहते हैं। जैसे कि पूरे विश्व में ईश्वर ने केवल उन्हें ही विलक्षण बनाया हो।
हमारी कोशिश होनी चाहिए कि हम अधिक से अधिक वास्तविकता के क़रीब रहें। इस प्रतिभा को हम अर्जित तो नहीं कर सकते लेकिन विवेक और विनम्रता के अभ्यास से इसके आस-पास अवश्य हो सकते हैं। यहाँ एक बात ग़ौर करने की है कि विनम्रता ‘वास्तविक’ हो न कि ओढ़ी हुई।
यदि वास्तविक विनम्रता का अभ्यास करना हो तो अपनों से छोटों, कमज़ोरों और ज़रूरतमंदों के प्रति करें।

दिनांक- 19 मार्च, 2016
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उम्र के बढ़ने के साथ, जिज्ञासाओं के प्रति उदासीनता होना ही जीवित रहते हुए भी मर जाने के समान है।
आप जितने अधिक जिज्ञासु हैं, उतने ही अधिक जीवन से भरे हुए हैं अर्थात जीवंत हैं।
जिसके पास नये-नये प्रश्न नहीं हैं वह कैसे साबित करेगा कि वह जीवित है।
छोटे बच्चों में अपार जिझासा होती है, असंख्य प्रश्न होते हैं।
इसलिए बच्चे जीवन से भरे होते हैं।
जिझासा का मर जाना, मनुष्य के मर जाने जैसा ही है।

दिनांक- 18 मार्च, 2016
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जिस समय हम किसी मुद्दे पर बहस कर रहे होते हैं तो सामने वाले की बात को 'जितना' ग़लत साबित करने की कोशिश कर रहे होते हैं उतनी ग़लत उसकी बात होती नहीं है।
इसी तरह हम अपनी बात को जितना सही साबित करने की कोशिश कर रहे होते हैं वह उतनी सही भी नहीं होती।
इन बहसों में हमारे उत्तेजित हो जाने का कारण भी अक्सर यही होता है।

दिनांक- 18 मार्च, 2016
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तनाव मुक्ति के बहुत से साधन हैं
लेकिन एक बहुत ही चमत्कारिक है
आप जिससे नफ़रत करते हैं उसे क्षमा कर दें
उसके प्रति भी करुणा का भाव मन में ले आएँ
तुरंत मन हलका हो जाता है
हाँ एक बात का ध्यान रखें कि यह आप अपने लिए कर रहे हैं
उस व्यक्ति से कोई उम्मीद न रखें

दिनांक- 18 मार्च, 2016
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सफल होने का तरीक़ा कोई जाने न जाने लेकिन
अपनी असफलता का रहस्य सबको पता होता है
और इसी छिपा होता है सफलता का रहस्य


शब्दार्थ

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