-  दिनांक- 21 फ़रवरी, 2015
  
आज निर्गत, नीर निर्झर नयन से होता गया 
त्याग कर मेरा हृदय वह क्यों विलग होता गया 
 
शब्द निष्ठुर, रूठकर करते रहे मनमानियां 
प्रेम का संदेश कुछ था और कुछ होता गया 
 
मैं अधम, शोषित हुआ, अपने ही भ्रामक दर्प से  
क्रूर समयाघात सह, अवसादमय होता गया 
 
कर रही विचलित, कि ज्यों टंकार प्रत्यंचा की हो 
नाद सुन अपने हृदय का मैं द्रवित होता गया 
 
मैं, अपरिचित काल क्रम की रार में विभ्रमित था 
वह निरंतर शुभ्र तन औ शांत मन होता गया
 
 
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-  दिनांक- 20 फ़रवरी, 2015
  
जो भी मैंने तुम्हें बताया 
जो कुछ सारा ज्ञान दिया है 
वो मेरे असफल जीवन का  
और मिरे अपराधी मन का 
कुंठाओं से भरा-भराया 
कुछ अनुभव था 
 
जितनी भूलें मैंने की थीं 
जितने मुझको शूल चुभे थे 
उतने ही अब फूल चुनूँ और  
सेज बना दूँ, ऐसा है मन  
और एक सपना भी है 
मेरा ही अपना 
 
मेरे भय ने मुझे सताया 
जीवन के अंधियारे पल थे 
जितने भी वो सारे कल थे 
दूर तुम्हें उनसे ले जाऊँ 
कहना यही चाहता हूँ मैं 
ये कम है क्या? 
 
मन से भाग सकूँगा कैसे 
कोई भाग सका भी है क्या 
 
कोई नहीं बता सकता है 
कोई नहीं जता सकता है 
ये तो बस, सब ऐसा ही है 
समझ सको तो समझ ही लेना 
प्रेम किया है जैसा भी है 
 
और नहीं मालूम मुझे कुछ 
यही प्रेम पाती है मेरी 
नहीं जानता लिखना कुछ भी 
जैसे-तैसे यही लिखा है...
 
 
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-  दिनांक- 19 फ़रवरी, 2015
  
प्रिय मित्रो! मेरी एक और रचना, क़ता-कविता आपके सामने। यह मैंने 20 वर्ष की उम्र में कही थी। 
नहीं थी बात कोई भी जिसे कि भूले हम  
रही हो याद कोई भी हमें तो याद नहीं 
 
कुछ इस तरहा गुज़री ये ज़िन्दगी अपनी 
जिया हो लम्हा कोई भी हमें तो याद नहीं 
 
हरेक चोट पे मरहम लगा के देख लिया 
भरा हो ज़ख़्म कोई भी हमें तो याद नहीं 
 
पिलाई हमको गई, नहीं किसी से कम 
हुआ हो हमको नशा भी हमें तो याद नहीं 
 
मिले थे लोग बहुत, चले थे साथ कई 
बना हो दोस्त कोई भी हमें तो याद नहीं 
 
सन् 1981 दिल्ली में कही थी
 
 
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-  दिनांक- 19 फ़रवरी, 2015
  
कोई मुस्कान ऐसी है जो हरदम याद आती है 
छिड़कती जान ऐसी है वो हरदम याद आती है 
 
अंधेरी ठंड की रातों में बस लस्सी ही पीनी है 
फुला के मुंह जो बैठी है वो हरदम याद आती है 
 
कभी हर बात पे हाँ है कभी हर बात पे ना है 
पटक कर पैर खिसियाती वो हरदम याद आती है 
 
शरारत आँखों में तैरी है और मैं देख ना पाऊँ 
झुकी नज़रों की शैतानी वो हरदम याद आती है 
 
न जाने कौन से जन्मों में मोती दान कर बैठा 
कई जन्मों के बंधन से वो हरदम याद आती है
 
 
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-  दिनांक- 18 फ़रवरी, 2015
  
तुझे देख लूँ और चुप रहूँ ऐसा हुनर मुझमें कहाँ 
तेरे साथ हूँ, तुझे ना छुऊँ ऐसा हुनर मुझमें कहाँ
 
 
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-  दिनांक- 18 फ़रवरी, 2015
  
लायक़ नहीं हैं हम तेरे, तू प्यार क्यूँ करे 
कोई गुल भला, ख़िज़ाओं से दीदार क्यूँ करे 
 
किस्मत ही दिल फ़रेब थी, तू बेवफ़ा नहीं 
बंदा ख़ुदा से क्या कहे इसरार क्यूँ करे 
 
जब चारागर ही मर्ज़ है तो किससे क्या कहें 
शब-ए-हिज़्र, अब रह-रह मुझे बीमार क्यूँ करे 
 
ख़ामोश आइने को अब इल्ज़ाम कितने दें 
तू ज़िन्दगी की सुबह यूँ बेज़ार क्यूँ करे 
 
परछाइयाँ भी खो गईं ज़ुलमत के साए में 
तू आ के, मेरा ज़िक्र ही बेकार क्यूँ करे
 
 
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-  दिनांक-  17 फ़रवरी, 2015
  
स्वामी विवेकानंद एक सभा में 'शब्द' की महिमा बता रहे थे, तभी एक व्यक्ति ने खड़े होकर कहा- 
"शब्द का कोई मूल्य नहीं कोई महत्व नहीं है और आप शब्द को सबसे महत्त्वपूर्ण बता रहे हैं... जबकि ध्यान की तुलना में शब्द कुछ भी नहीं है" 
विवेकानंद ने कहा- 
"बैठ जा मूर्ख, खड़ा क्यों हो गया।" 
उस व्यक्ति ने नाराज़ होकर कहा- 
"आप मुझे मूर्ख कह रहे हैं। यह भी कोई सभ्यता है ?" 
"क्यों बुरा लगा ? मूर्ख भी तो शब्द ही है। इस एक शब्द से आपका पूरा संतुलन डगमगा गया। अब आपकी समझ में आ गया होगा कि शब्द का कितना महत्व है।" 
शब्द की महिमा अपार है लेकिन हमारे नेता इस महिमा को भूलते जा रहे हैं।...
 
 
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-  दिनांक-  7 फ़रवरी, 2015
  
स्वाइन फ़्लू फैल रहा है। जानलेवा है। बहुत ध्यान से रहें। इसके बारे में ज़्यादा से ज़्यादा जानकारी प्राप्त करें और सबको बताएँ। मास्क लगा कर रहें। इसमें शर्म की कोई बात नहीं। डॉक्टर से सलाह लें। विटेमिन सी अधिक लें। 
हर किसी को अपना मुँह और अपनी नाक ढक कर रखना जरूरी है, खासकर तब जब कोई छींक रहा हो। 
बार-बार हाथ धोना जरूरी है। 
अगर किसी को ऐसा लगता है कि उनकी तबीयत ठीक नहीं है तो उन्हें घर पर रहना चाहिये। ऐसी स्थिति में काम या स्कूल पर जाना उचित नहीं होगा और जहां तक हो सके भीड़ से दूर रहना फायदेमंद साबित होगा। 
अगर सांस लेने में तकलीफ होती है, या फिर अचानक चक्कर आने लगते हैं, या उल्टी होने लगती है तो ऐसे हालात में फ़ौरन डॉक्टर के पास जाना जरूरी है। 
खराब पानी से दूर रहें।
 
 
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-  दिनांक-  4 फ़रवरी, 2015
  
क्या विश्वास एक ऐसा भ्रम नहीं है जो अब तक टूटा नहीं...
 
 
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-  दिनांक- 2 फ़रवरी, 2015
  
कि तुम कुछ इस तरह आना  
मेरे दिल की दुछत्ती में 
लगे ऐसा कि जैसे रौशनी है  
दिल के आंगन में 
 
बरसना फूल बन गेंदा के  
मेरे भव्य स्वागत को 
और बन हार डल जाना  
मेरी झुकती सी गरदन में 
 
सुबह की चाय की चुसकी की  
तुम आवाज़ हो जाना 
सुगंधित तेल बन बिखरो 
फिसलना मेरे बालों में 
 
रसोई के मसालों सी रोज़  
महकाओ घर भर को  
कढ़ी चावल सा लिस जाना  
मेरे हाथों में होठों में 
 
मचलना, सीऽ-सीऽ होकर  
चाट की चटख़ारियों में तुम  
कभी खट्टा, कभी मीठा लगो  
तुम स्वाद चटनी में 
 
मेरी आँखों के गुलशन में  
रहो राहत भरी झपकन  
सहमना और सिकुड़ जाना  
छुईमुई बन के सपनों में 
 
कहूँ क्या मैं तो  
इक सीधा और सादा सा बंदा हूँ 
ग़रज़ ये है कि मिलता है 
तुम्हीं से सार जीवन में
 
 
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-  दिनांक-  1 फ़रवरी, 2015
  
  
यह स्तुति अब तुम बंद करो 
अर्जुन ! जाओ अब तंग न करो 
ऐसा कह मौन हुए केशव 
सहमे से खड़े हुए थे सब 
 
सहसा विराट बन हुए अचल 
यह रूप देख सब थे निश्चल 
गंभीर रूप रौरव था स्वर 
नि:श्वास छोड़ फिर हुए मुखर 
 
अर्जुन! सुन मेरी करुण कथा  
जब कोई नहीं था बस मैं था 
इन सूर्य चंद्र से भी पहले  
मैं ही मैं था, मैं ही मैं था 
 
मैं अगम अगोचर अनजाना 
कोई साथ नहीं मैंने जाना 
ब्रह्मांड-व्योम बिन जीता था 
अस्तित्व, काल से रीता था 
 
अमरत्व नहीं मैंने पाया  
ना काल मुझे ग्रसने आया 
कोई आदि नहीं मेरा होता 
चिर निद्रा लीन नहीं होता 
 
मुझको एकांत सताता था 
मैं यूं ही जीये जाता था 
फिर एक दिवस ऐसा आया 
मैं रचूँ सृष्टि, मुझको भाया 
 
मैंने ही सृष्टि रची अर्जुन ! 
अब सुनो बुद्धि से श्रेष्ठ वचन 
मनुजों के लिए नहीं थी ये 
सब जड़-चेतन समरस ही थे 
 
पर मानव इसका केन्द्र बना 
विज्ञान ज्ञान का सेतु तना 
हर प्राणी पीछे छूट गया 
मैं भी मानव से रूठ गया 
 
मैंने रचकर संसार सकल 
होते देखा सब कुछ निष्फल 
कोई और नहीं खोता कुछ भी 
मरता मैं हूँ कोई और नहीं 
 
तुम मुझे सर्वव्यापी कहकर 
कर रहे पाप सब रह रह कर 
मैं ही हंता, सृष्टा मैं ही ?  
कृष्ण, कंस दोनों मैं ही? 
 
यदि स्वयं कंस में भी रहता 
वह दुष्ट भला कैसे मरता 
कुछ तो विवेक से भान करो 
सद्गुणी जनों का ध्यान धरो 
 
क्यों नहीं तुम्हें यह ज्ञान हुआ 
किस कारण ये अज्ञान हुआ 
अपराधी मुझको मान लिया 
मैंने मुझको ही दंड दिया? 
 
अर्जुन! कैसा है ये अनर्थ 
मेरा, होना ही हुआ व्यर्थ 
किसकी ऐसी अभिलाषा थी? 
जो मेरी ये परिभाषा की? 
 
रक्तिम आँखों के ज्वाल देख 
अर्जुन, भगवन् का भाल देख 
आँखें मलता सब सुना किया 
जैसे-तैसे मन शांत किया 
 
क्या हंता हो सकती माता 
क्या काल पिता लेकर आता 
जिसने तुमको यह जन्म दिया 
उसको तुमने यम रूप दिया 
 
यदि पिता मुझे तुम कहते हो 
तो क्यों सहमे से रहते हो 
मैं नहीं, देव-दानव कोई 
निज ममता नहीं कभी सोई 
 
दुष्टों में नहीं वास करता 
मैं मित्र सखा हूँ उन सबका 
जो करुणा का रस पीते हैं 
समदृष्टि भाव से जीते हैं 
 
कण-कण में बसा नहीं हूँ मैं 
सद हृदय ढूँढता शनै: शनै: 
और फिर उसमें बस जाता हूँ 
जीवन की गीता गाता हूँ
 
 
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